કોઈ સ્થળે બેચાર મરે છે,
ક્યાંક કશે દસબાર મરે છે;
હિન્દુ મુસ્લિમ બંને સલામત,
માણસ વારંવાર મરે છે.
-ખલીલ ધનતેજવી
Wednesday, September 12, 2012
Tuesday, September 11, 2012
પાણીને પાણી બતાવશું
સંઘર્ષ કેવો હોય છે એ જાણી બતાવશું,
ઝરણું કહે પહાળ ને ટાણી બતાવશું,
ડુબી જવાની પળને ડુબાળીશું આપણે,
પાણીમાં રહીને પાણીને પાણી બતાવશું.
કિરણ ચૌહાણ
ઝરણું કહે પહાળ ને ટાણી બતાવશું,
ડુબી જવાની પળને ડુબાળીશું આપણે,
પાણીમાં રહીને પાણીને પાણી બતાવશું.
કિરણ ચૌહાણ
Friday, September 7, 2012
मुनव्वर राना
कोइ गर पुछ लेगा तो उसे क्या मुंह दिखायेंगे
कि न्न्हें मियांको क्यों कंवारा छोड आये है ?
दिखावे की मोहब्बत से वो कैसे मुत्मइन होंगे
कि जो उसकी मोहब्बत बेतहाशा छोड़ आए हैं
न कुछ खाने को जी चाहे न कुछ पीने को जी चाहे
हम अपने ह्म-निवाला हम-पियाला छोड़ आए हैं
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए है
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं
कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं
कि हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं
कहानी का ये हिस्सा आज तक सबसे छुपाया है
कि हम मिटटी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं
ख़ुदा जाने ये हिजरत थी कि हिजरत का तमाशा था
उजाले की तमन्ना में उजाला छोड़ आए हैं
ये ख़ुदगरज़ी का जज़्बा आज तक हमको रुलाता है
कि हम बेटे तो ले आए भतीजा छोड़ आए हैं
अक़ीदत से कलाई पर जो एक बच्ची ने बाँधी थी
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं
न जाने कितने चेहरों को धुंआ करके चले आए
न जाने कितनी आँखों को छलकता छोड़ आए हैं
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए है
वो इक त्यौहार में घर की फसीलों पर दिये रखना
अब आँखें पूछती है क्यों उजाला छोड़ आए है
वो जिनसे रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ तअल्लुक़ था
वो लक्ष्मी छोड़ आए है वो दुर्गा छोड़ आए है
सभी त्यौहार मिल - जुल कर मनाते थे वहाँ जब थे
दिवाली छोड़ आए है दशहरा छोड़ आए है
हिफ़ाज़त के लिए मस्जिद को घेरे हों कई मंदिर
रवादारी का ये दिलकश नज़ारा छोड़ आए है
जन्म जिसने दिया हमको उसे तो साथ ले आए
मगर आते हुए मैया यशोदा छोड़ आए हैं
बिछड़ते वक़्त की वो सिसकियाँ वो फूट कर रोना
कि जैसे मछलियों को हम सिसकता छोड़ आए है
हंसी आती है अपनी ही अदाकारी पे ख़ुद हमको
बने फिरते हैं यूसुफ़ और ज़ुलेख़ा छोड़ आए हैं
बिछड़ते वक़्त था दुश्वार उसका सामना करना
सो उसके नाम हम अपना संदेशा छोड़ आए हैं
बुरे लगते हैं शायद इसलिए ये सुरमई बादल
किसी की ज़ुल्फ़ को शानों पे बिखरा छोड़ आए हैं
कई होंटों पे ख़ामोशी की पपड़ी जम गयी होगी
कई आँखों में हम अश्कों का पर्दा छोड़ आए हैं
सुनहरे ख़्वाब की ताबीर अच्छी क्यूँ नहीं होती
जो आँखों में रहा करता था चेहरा छोड़ आए हैं
मुहब्बत की कहानी को मुकम्मल कर नहीं पाये
अधूरा था जो किस्सा वो अधूरा छोड़ आए हैं
वो ख़त जिसपर तेरे होंटों ने अपना नाम लिक्खा था
तेरे काढ़े हुए तकिये पे रक्खा छोड़ आये हैं
बसी थी जिसमें ख़ुशबू मेरी अम्मी की जवानी की
वो चादर छोड़ आयें है वो तकिया छोड़ आए हैं
महीनों तक तो अम्मी नींद में भी बड़बड़ाती थीं
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आये हैं
हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छूट गयी आख़िर
कि हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आये हैं
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी
कि हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आये हैं
किसी नुक्सान की भरपाई तो अब हो नहीं सकती
तो फिर क्या सोचना क्या लाए कितना छोड़ आये हैं
रेआया थे तो फिर हाकिम का कहना क्यों नहीं माना
अगर हम शाह थे तो क्यों रेआया छोड़ आये हैं
भतीजी अब सलीक़े से दुपट्टा ओढ़ती होगी
वहीं, झूले में हम जिसको हुमकता छोड़ आये हैं
बहुत कम दाम में बनिए ने खेतों को ख़रीदा था
हम इसके बावज़ूद उस पर बकाया छोड़ आए हैं
ज़मीने -नानक-ओ-चिश्ती,ज़बाने -ग़ालिब-ओ-तुलसी
ये सब कुछ पास था अपने ये सारा छोड़ आये हैं
अगर लिखने पे आ जाएँ सियाही ख़त्म हो जाए
कि तेरे पास आये हैं तो क्या -क्या छोड़ आये हैं
ग़ज़ल ये ना-मुक़म्मल ही रहेगी उम्र भर "राना"
कि हम सरहदसे पीछे इसका मक़्ता छोड आयें है
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं
कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं
अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं
किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं
पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं
जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं
यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं
हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं
हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं
कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं
के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी
के हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं
वो बरगद जिसके पेड़ों से महक आती थी फूलों की
उसी बरगद में एक हरियल का जोड़ा छोड़ आए हैं
अभी तक बारिसों में भीगते ही याद आता है
के छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं
भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी
वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं
ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी
के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं
हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छुट गए आखिर
के हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आए हैं
महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं
वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं
यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आए
मगर इकबाल का लिखा तराना छोड़ आए हैं
हिमालय से निकलती हर नदी आवाज़ देती थी
मियां आओ वजू कर लो ये जूमला छोड़ आए हैं
वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है
के हम जल्दी में जमुना का किनारा छोड़ आए हैं
उतार आये मुरव्वत और रवादारी का हर चोला
जो एक साधू ने पहनाई थी माला छोड़ आए हैं
जनाबे मीर का दीवान तो हम साथ ले आये
मगर हम मीर के माथे का कश्का छोड़ आए हैं
उधर का कोई मिल जाए इधर तो हम यही पूछें
हम आँखे छोड़ आये हैं के चश्मा छोड़ आए हैं
हमारी रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ ताल्लुक था
जो लक्ष्मी छोड़ आये हैं जो दुर्गा छोड़ आए हैं
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं
कल एक अमरुद वाले से ये कहना पडा हमको
जहां से आये हैं हम इसकी बगिया छोड़ आए हैं
वो हैरत से हमे तकता रहा कुछ देर फिर बोला
वो संगम का इलाका छुट गया या छोड़ आए हैं
अभी हम सोच में गूम थे के उससे क्या कहा जाए
हमारे आन्सुयों ने राज खोला छोड़ आए हैं
मुहर्रम में हमारा लखनऊ इरान लगता था
मदद मौला हुसैनाबाद रोता छोड़ आए हैं
जो एक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है
वहीँ हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं
महल से दूर बरगद के तलए मवान के खातिर
थके हारे हुए गौतम को बैठा छोड़ आए हैं
तसल्ली को कोई कागज़ भी चिपका नहीं पाए
चरागे दिल का शीशा यूँ ही चटखा छोड़ आए हैं
सड़क भी शेरशाही आ गयी तकसीम के जद मैं
तुझे करके हिन्दुस्तान छोटा छोड़ आए हैं
हसीं आती है अपनी अदाकारी पर खुद हमको
बने फिरते हैं युसूफ और जुलेखा छोड़ आए हैं
गुजरते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं
हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी
वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रखा छोड़ आए हैं
तू हमसे चाँद इतनी बेरुखी से बात करता है
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आए हैं
ये दो कमरों का घर और ये सुलगती जिंदगी अपनी
वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आए हैं
हमे मरने से पहले सबको ये ताकीत करना है
किसी को मत बता देना की क्या-क्या छोड़ आए हैं
हमीं ग़ालिबसे नादीम है, हमीं तुलसीसे शर्मिंदा
हमींने मीरको छोडा है, मीरा छोड आए हैं
अगर लिखने पे आ जायें तो सियाही ख़त्म हो जाये
कि तेरे पास आयें है तो क्या-क्या छोड आये हैं
ग़ज़ल ये ना-मुक़म्मल ही रहेगी उम्र भर "राना"
कि हम सरहदसे पीछे इसका मक़्ता छोड आयें है
सियासतने सुना है नाम तक उसका बदल डाला
वही हम जिसको कहतें है "बडौदा" छोड आए हैं
जहां हम चाय पीनेके बहाने रोज़ मिलते थे
यहां आते हुए वो चायख़ाना छोड आए हैं
अगर हम ध्यानसे सुनतें तो मुमकिन है पलट जातें
मगर "आजाद" का ख़ुत्बा अधुरा छोड आए हैं
महिनों तक तो अम्मी नींदमें भी बडबडाती थी
सुख़ानेके लिये छत पर पुदीना छोड आए हैं
गुज़रतें वक़्त बाज़ारोंसे अब भी ध्यान आता है
किसीको उसके कमरेमें संवरता छोड आए हैं
हमारे घरमें बिल्ली और तोता साथ रेह्तें थे
मुहब्बत हम तेरा असली नमूना छोड आए हैं
हंसी आती है अपनी ही अदाकारी पे खुद हमको
बने फिरतें है यूसुफ और जुलेख़ा छोड आए हैं
हमीं ग़ालिबसे नादीम है, हमीं तुलसीसे शर्मिंदा
हमींने मीरको छोडा है, मीरा छोड आए हैं
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मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं ।
कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं ।
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में,
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं ।
अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी,
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं ।
किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी,
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं ।
पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से,
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं ।
जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।
यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद,
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं ।
हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है,
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं ।
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है,
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं ।
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे,
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं ।
हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं,
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं ।
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं ।
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की,
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं ।
कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं,
के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं ।
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी,
के हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं ।
वो बरगद जिसके पेड़ों से महक आती थी फूलों की,
उसी बरगद में एक हरियल का जोड़ा छोड़ आए हैं ।
अभी तक बारिसों में भीगते ही याद आता है,
के छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं ।
भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी,
वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं ।
ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी,
के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं ।
हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छुट गए आखिर,
के हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आए हैं ।
महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं,
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं ।
वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी,
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं ।
मुनव्वर राना
कि न्न्हें मियांको क्यों कंवारा छोड आये है ?
दिखावे की मोहब्बत से वो कैसे मुत्मइन होंगे
कि जो उसकी मोहब्बत बेतहाशा छोड़ आए हैं
न कुछ खाने को जी चाहे न कुछ पीने को जी चाहे
हम अपने ह्म-निवाला हम-पियाला छोड़ आए हैं
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए है
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं
कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं
कि हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं
कहानी का ये हिस्सा आज तक सबसे छुपाया है
कि हम मिटटी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं
ख़ुदा जाने ये हिजरत थी कि हिजरत का तमाशा था
उजाले की तमन्ना में उजाला छोड़ आए हैं
ये ख़ुदगरज़ी का जज़्बा आज तक हमको रुलाता है
कि हम बेटे तो ले आए भतीजा छोड़ आए हैं
अक़ीदत से कलाई पर जो एक बच्ची ने बाँधी थी
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं
न जाने कितने चेहरों को धुंआ करके चले आए
न जाने कितनी आँखों को छलकता छोड़ आए हैं
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए है
वो इक त्यौहार में घर की फसीलों पर दिये रखना
अब आँखें पूछती है क्यों उजाला छोड़ आए है
वो जिनसे रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ तअल्लुक़ था
वो लक्ष्मी छोड़ आए है वो दुर्गा छोड़ आए है
सभी त्यौहार मिल - जुल कर मनाते थे वहाँ जब थे
दिवाली छोड़ आए है दशहरा छोड़ आए है
हिफ़ाज़त के लिए मस्जिद को घेरे हों कई मंदिर
रवादारी का ये दिलकश नज़ारा छोड़ आए है
जन्म जिसने दिया हमको उसे तो साथ ले आए
मगर आते हुए मैया यशोदा छोड़ आए हैं
बिछड़ते वक़्त की वो सिसकियाँ वो फूट कर रोना
कि जैसे मछलियों को हम सिसकता छोड़ आए है
हंसी आती है अपनी ही अदाकारी पे ख़ुद हमको
बने फिरते हैं यूसुफ़ और ज़ुलेख़ा छोड़ आए हैं
बिछड़ते वक़्त था दुश्वार उसका सामना करना
सो उसके नाम हम अपना संदेशा छोड़ आए हैं
बुरे लगते हैं शायद इसलिए ये सुरमई बादल
किसी की ज़ुल्फ़ को शानों पे बिखरा छोड़ आए हैं
कई होंटों पे ख़ामोशी की पपड़ी जम गयी होगी
कई आँखों में हम अश्कों का पर्दा छोड़ आए हैं
सुनहरे ख़्वाब की ताबीर अच्छी क्यूँ नहीं होती
जो आँखों में रहा करता था चेहरा छोड़ आए हैं
मुहब्बत की कहानी को मुकम्मल कर नहीं पाये
अधूरा था जो किस्सा वो अधूरा छोड़ आए हैं
वो ख़त जिसपर तेरे होंटों ने अपना नाम लिक्खा था
तेरे काढ़े हुए तकिये पे रक्खा छोड़ आये हैं
बसी थी जिसमें ख़ुशबू मेरी अम्मी की जवानी की
वो चादर छोड़ आयें है वो तकिया छोड़ आए हैं
महीनों तक तो अम्मी नींद में भी बड़बड़ाती थीं
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आये हैं
हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छूट गयी आख़िर
कि हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आये हैं
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी
कि हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आये हैं
किसी नुक्सान की भरपाई तो अब हो नहीं सकती
तो फिर क्या सोचना क्या लाए कितना छोड़ आये हैं
रेआया थे तो फिर हाकिम का कहना क्यों नहीं माना
अगर हम शाह थे तो क्यों रेआया छोड़ आये हैं
भतीजी अब सलीक़े से दुपट्टा ओढ़ती होगी
वहीं, झूले में हम जिसको हुमकता छोड़ आये हैं
बहुत कम दाम में बनिए ने खेतों को ख़रीदा था
हम इसके बावज़ूद उस पर बकाया छोड़ आए हैं
ज़मीने -नानक-ओ-चिश्ती,ज़बाने -ग़ालिब-ओ-तुलसी
ये सब कुछ पास था अपने ये सारा छोड़ आये हैं
अगर लिखने पे आ जाएँ सियाही ख़त्म हो जाए
कि तेरे पास आये हैं तो क्या -क्या छोड़ आये हैं
ग़ज़ल ये ना-मुक़म्मल ही रहेगी उम्र भर "राना"
कि हम सरहदसे पीछे इसका मक़्ता छोड आयें है
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं
कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं
अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं
किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं
पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं
जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं
यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं
हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं
हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं
कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं
के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी
के हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं
वो बरगद जिसके पेड़ों से महक आती थी फूलों की
उसी बरगद में एक हरियल का जोड़ा छोड़ आए हैं
अभी तक बारिसों में भीगते ही याद आता है
के छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं
भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी
वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं
ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी
के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं
हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छुट गए आखिर
के हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आए हैं
महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं
वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं
यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आए
मगर इकबाल का लिखा तराना छोड़ आए हैं
हिमालय से निकलती हर नदी आवाज़ देती थी
मियां आओ वजू कर लो ये जूमला छोड़ आए हैं
वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है
के हम जल्दी में जमुना का किनारा छोड़ आए हैं
उतार आये मुरव्वत और रवादारी का हर चोला
जो एक साधू ने पहनाई थी माला छोड़ आए हैं
जनाबे मीर का दीवान तो हम साथ ले आये
मगर हम मीर के माथे का कश्का छोड़ आए हैं
उधर का कोई मिल जाए इधर तो हम यही पूछें
हम आँखे छोड़ आये हैं के चश्मा छोड़ आए हैं
हमारी रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ ताल्लुक था
जो लक्ष्मी छोड़ आये हैं जो दुर्गा छोड़ आए हैं
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं
कल एक अमरुद वाले से ये कहना पडा हमको
जहां से आये हैं हम इसकी बगिया छोड़ आए हैं
वो हैरत से हमे तकता रहा कुछ देर फिर बोला
वो संगम का इलाका छुट गया या छोड़ आए हैं
अभी हम सोच में गूम थे के उससे क्या कहा जाए
हमारे आन्सुयों ने राज खोला छोड़ आए हैं
मुहर्रम में हमारा लखनऊ इरान लगता था
मदद मौला हुसैनाबाद रोता छोड़ आए हैं
जो एक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है
वहीँ हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं
महल से दूर बरगद के तलए मवान के खातिर
थके हारे हुए गौतम को बैठा छोड़ आए हैं
तसल्ली को कोई कागज़ भी चिपका नहीं पाए
चरागे दिल का शीशा यूँ ही चटखा छोड़ आए हैं
सड़क भी शेरशाही आ गयी तकसीम के जद मैं
तुझे करके हिन्दुस्तान छोटा छोड़ आए हैं
हसीं आती है अपनी अदाकारी पर खुद हमको
बने फिरते हैं युसूफ और जुलेखा छोड़ आए हैं
गुजरते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं
हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी
वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रखा छोड़ आए हैं
तू हमसे चाँद इतनी बेरुखी से बात करता है
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आए हैं
ये दो कमरों का घर और ये सुलगती जिंदगी अपनी
वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आए हैं
हमे मरने से पहले सबको ये ताकीत करना है
किसी को मत बता देना की क्या-क्या छोड़ आए हैं
हमीं ग़ालिबसे नादीम है, हमीं तुलसीसे शर्मिंदा
हमींने मीरको छोडा है, मीरा छोड आए हैं
अगर लिखने पे आ जायें तो सियाही ख़त्म हो जाये
कि तेरे पास आयें है तो क्या-क्या छोड आये हैं
ग़ज़ल ये ना-मुक़म्मल ही रहेगी उम्र भर "राना"
कि हम सरहदसे पीछे इसका मक़्ता छोड आयें है
सियासतने सुना है नाम तक उसका बदल डाला
वही हम जिसको कहतें है "बडौदा" छोड आए हैं
जहां हम चाय पीनेके बहाने रोज़ मिलते थे
यहां आते हुए वो चायख़ाना छोड आए हैं
अगर हम ध्यानसे सुनतें तो मुमकिन है पलट जातें
मगर "आजाद" का ख़ुत्बा अधुरा छोड आए हैं
महिनों तक तो अम्मी नींदमें भी बडबडाती थी
सुख़ानेके लिये छत पर पुदीना छोड आए हैं
गुज़रतें वक़्त बाज़ारोंसे अब भी ध्यान आता है
किसीको उसके कमरेमें संवरता छोड आए हैं
हमारे घरमें बिल्ली और तोता साथ रेह्तें थे
मुहब्बत हम तेरा असली नमूना छोड आए हैं
हंसी आती है अपनी ही अदाकारी पे खुद हमको
बने फिरतें है यूसुफ और जुलेख़ा छोड आए हैं
हमीं ग़ालिबसे नादीम है, हमीं तुलसीसे शर्मिंदा
हमींने मीरको छोडा है, मीरा छोड आए हैं
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मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं ।
कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं ।
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में,
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं ।
अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी,
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं ।
किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी,
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं ।
पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से,
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं ।
जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।
यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद,
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं ।
हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है,
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं ।
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है,
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं ।
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे,
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं ।
हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं,
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं ।
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं ।
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की,
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं ।
कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं,
के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं ।
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी,
के हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं ।
वो बरगद जिसके पेड़ों से महक आती थी फूलों की,
उसी बरगद में एक हरियल का जोड़ा छोड़ आए हैं ।
अभी तक बारिसों में भीगते ही याद आता है,
के छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं ।
भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी,
वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं ।
ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी,
के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं ।
हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छुट गए आखिर,
के हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आए हैं ।
महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं,
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं ।
वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी,
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं ।
मुनव्वर राना
Tuesday, September 4, 2012
આરતી ઊતારવાની એમને આદત હતી
આરતી ઊતારવાની એમને આદત હતી,
સૌને ઈશ્વર માનવાની એમને આદત હતી.
એમના માટે ચિત્તા પણ ઝૂલતી રાખો તમે,
હિંચકા પર બેસવાની એમને આદત હતી.
સ્વર્ગમાં જઈ ખૂબ ગાળાગાળી કરતા થઇ ગયા,
શ્રલોક કાયમ બોલવાની એમને આદત હતી.
જિંદગીનાં માર્ગ પર ચાલ્યા વગર હાંફી ગયા,
દોરડા પર દોડવાની એમને આદત હતી.
વૃક્ષ સૌ હડતાલ પર છે જેમની તરફેણમાં,
પાન લીલા તોડવાની એમને આદત હતી.
ભાવેશ ભટ્ટ
સૌને ઈશ્વર માનવાની એમને આદત હતી.
એમના માટે ચિત્તા પણ ઝૂલતી રાખો તમે,
હિંચકા પર બેસવાની એમને આદત હતી.
સ્વર્ગમાં જઈ ખૂબ ગાળાગાળી કરતા થઇ ગયા,
શ્રલોક કાયમ બોલવાની એમને આદત હતી.
જિંદગીનાં માર્ગ પર ચાલ્યા વગર હાંફી ગયા,
દોરડા પર દોડવાની એમને આદત હતી.
વૃક્ષ સૌ હડતાલ પર છે જેમની તરફેણમાં,
પાન લીલા તોડવાની એમને આદત હતી.
ભાવેશ ભટ્ટ
ઉંદરડા
દિશા કે લક્ષ્ય કે ઉદ્દેશ છોડ ઉંદરડા,
બધાય દોડે છે અહીં, તું ય દોડ ઉંદરડા.
ગમે તો ઠીક, અને ના ગમે તો તારા ભોગ
આ જિંદગી એ ફરજીયાત હોડ ઉંદરડા.
કોઈને પાડીને ઉપર જવાનું શીખી લે
શિખર સુધીનો પછી સાફ રોડ ઉંદરડા.
આ એક-બે કે હજારોની વાત છે જ નહીં
બધા મળીને છે છસ્સો કરોડ ઉંદરડા.
થકાન, હાંફ, ને સપનાં વગરની સૂની નજર
તમામ દોડનો બસ આ નિચોડ ઉંદરડા.
વિવેક કાણે ‘સહજ’
બધાય દોડે છે અહીં, તું ય દોડ ઉંદરડા.
ગમે તો ઠીક, અને ના ગમે તો તારા ભોગ
આ જિંદગી એ ફરજીયાત હોડ ઉંદરડા.
કોઈને પાડીને ઉપર જવાનું શીખી લે
શિખર સુધીનો પછી સાફ રોડ ઉંદરડા.
આ એક-બે કે હજારોની વાત છે જ નહીં
બધા મળીને છે છસ્સો કરોડ ઉંદરડા.
થકાન, હાંફ, ને સપનાં વગરની સૂની નજર
તમામ દોડનો બસ આ નિચોડ ઉંદરડા.
વિવેક કાણે ‘સહજ’
ફાટી ગઈ છે જાત, કબીરા.
ટૂંકી ટચરક વાત, કબીરા,
લાંબી પડશે રાત, કબીરા.
અવસર કેવળ એક જ દિ’નો,
વચ્ચે મહિના સાત, કબીરા.
ખુલ્લમખુલ્લી પીઠ મળી છે,
મારે તેની લાત, કબીરા.
કાપડ છો ને કાણી પૈનું,
પાડો મોંઘી ભાત, કબીરા.
જીવ હજીએ ઝભ્ભામાં છે,
ફાટી ગઈ છે જાત, કબીરા.
ચંદ્રેશ મકવાણા ‘નારાજ’
લાંબી પડશે રાત, કબીરા.
અવસર કેવળ એક જ દિ’નો,
વચ્ચે મહિના સાત, કબીરા.
ખુલ્લમખુલ્લી પીઠ મળી છે,
મારે તેની લાત, કબીરા.
કાપડ છો ને કાણી પૈનું,
પાડો મોંઘી ભાત, કબીરા.
જીવ હજીએ ઝભ્ભામાં છે,
ફાટી ગઈ છે જાત, કબીરા.
ચંદ્રેશ મકવાણા ‘નારાજ’
Monday, September 3, 2012
जो हो मालूम गेहराई तो दरिया पार क्या करना
पनाहो में जो आया हो तो उस पर वार क्या करना
जो दिल हारा हुआ हो उस पे फिर अधिकार क्या करना
मोहब्बत का मज़ा तो डूबने की कश्मकश में है
जो हो मालूम गेहराई तो दरिया पार क्या करना
- कुमार विश्वास
जो दिल हारा हुआ हो उस पे फिर अधिकार क्या करना
मोहब्बत का मज़ा तो डूबने की कश्मकश में है
जो हो मालूम गेहराई तो दरिया पार क्या करना
- कुमार विश्वास
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